शनिवार, 16 जनवरी 2016

खवाहिश  नही 

खवाहिश  नही  मुझे  मशहुर  होने  की।
आप  मुझे  पहचानते  हो  बस  इतना  ही  काफी  है।
अच्छे  ने  अच्छा  और  बुरे  ने  बुरा  जाना  मुझे।
क्यों  की  जीसकी  जीतनी  जरुरत  थी  उसने  उतना  ही  पहचाना  मुझे।
ज़िन्दगी  का  फ़लसफ़ा  भी   कितना  अजीब  है,
शामें  कटती  नहीं,  और  साल  गुज़रते  चले  जा  रहे  हैं....!!
एक  अजीब  सी  दौड़  है  ये  ज़िन्दगी,
जीत  जाओ  तो  कई  अपने  पीछे  छूट  जाते  हैं,
और  हार  जाओ  तो  अपने  ही  पीछे  छोड़  जाते  हैं।
बैठ जाता हूं मिट्टी पे अक्सर...
क्योंकि मुझे अपनी औकात अच्छी लगती है..

मैंने समंदर से सीखा है जीने का सलीक़ा,
चुपचाप से बहना और अपनी मौज में रहना ।।

ऐसा नहीं है कि मुझमें कोई ऐब नहीं है पर सच कहता हूँ मुझमे कोई फरेब नहीं है

जल जाते हैं मेरे अंदाज़ से मेरे दुश्मन क्यूंकि एक मुद्दत से मैंने
न मोहब्बत बदली और न दोस्त बदले .!!.
एक घड़ी ख़रीदकर हाथ मे क्या बाँध ली..
वक़्त पीछे ही पड़ गया मेरे..!!

सोचा था घर बना कर बैठुंगा सुकून से..
पर घर की ज़रूरतों ने मुसाफ़िर बना डाला !!!

सुकून की बात मत कर ऐ ग़ालिब....
बचपन वाला 'इतवार' अब नहीं आता |

जीवन की भाग-दौड़ में -
क्यूँ वक़्त के साथ रंगत खो जाती है ?
हँसती-खेलती ज़िन्दगी भी आम हो जाती है..

एक सवेरा था जब हँस कर उठते थे हम
और
आज कई बार
बिना मुस्कुराये ही शाम हो जाती है..

कितने दूर निकल गए,
रिश्तो को निभाते निभाते..
खुद को खो दिया हमने,
अपनों को पाते पाते..

लोग कहते है हम मुस्कुराते बहोत है,
और हम थक गए दर्द छुपाते छुपाते..

"खुश हूँ और सबको खुश रखता हूँ,
लापरवाह हूँ फिर भी सबकी परवाह
करता हूँ..

मालूम है कोई मोल नहीं मेरा,
फिर भी,
कुछ अनमोल लोगो से
रिश्ता रखता हूँ...!

माँ बहुत झूठ बोलती है.....

...........माँ बहुत झूठ बोलती है............

सुबह जल्दी जगाने को, सात बजे को आठ कहती है।
नहा लो, नहा लो, के घर में नारे बुलंद करती है।
मेरी खराब तबियत का दोष बुरी नज़र पर मढ़ती है।
छोटी छोटी परेशानियों पर बड़ा बवंडर करती है।
..........माँ बहुत झूठ बोलती है।।

थाल भर खिलाकर, तेरी भूख मर गयी कहती है।
जो मैं न रहूँ घर पे तो, मेरी पसंद की कोई चीज़ रसोई में उससे नहीं पकती है।
मेरे मोटापे को भी, कमजोरी की सूजन बोलती है।
.........माँ बहुत झूठ बोलती है।।

दो ही रोटी रखी है रास्ते के लिए, बोल कर,
मेरे साथ दस लोगों का खाना रख देती है।
कुछ नहीं-कुछ नहीं बोल, नजर बचा बैग में, छिपी शीशी अचार की बाद में निकलती है।
.........माँ बहुत झूठ बोलती है।।

टोका टाकी से जो मैं झुँझला जाऊँ कभी तो,
समझदार हो, अब न कुछ बोलूँगी मैं,
ऐंसा अक्सर बोलकर वो रूठती है।
अगले ही पल फिर चिंता में हिदायती हो जाती है।
.........माँ बहुत झूठ बोलती है।।

तीन घंटे मैं थियटर में ना बैठ पाऊँगी,
सारी फ़िल्में तो टी वी पे आ जाती हैं,
बाहर का तेल मसाला तबियत खराब करता है,
बहानों से अपने पर होने वाले खर्च टालती है।
..........माँ बहुत झूठ बोलती है।।

मेरी उपलब्धियों को बढ़ा चढ़ा कर बताती है।
सारी खामियों को सब से छिपा लिया करती है।
उसके व्रत, नारियल, धागे, फेरे, सब मेरे नाम,
तारीफ़ ज़माने में कर बहुत शर्मिंदा करती है।
..........माँ बहुत झूठ बोलती है।।

भूल भी जाऊँ दुनिया भर के कामों में उलझ,
उसकी दुनिया में वो मुझे कब भूलती है।
मुझ सा सुंदर उसे दुनिया में ना कोई दिखे,
मेरी चिंता में अपने सुख भी किनारे कर देती है।
..........माँ बहुत झूठ बोलती है।।

उसके फैलाए सामानों में से जो एक उठा लूँ
खुश होती जैसे, खुद पर उपकार समझती है।
मेरी छोटी सी नाकामयाबी पे उदास होकर,
सोच सोच अपनी तबियत खराब करती है।
..........माँ बहुत झूठ बोलती है।।

" हर माँ को समर्पित "

खवाहिश  नही 

खवाहिश  नही  मुझे  मशहुर  होने  की।
आप  मुझे  पहचानते  हो  बस  इतना  ही  काफी  है।
अच्छे  ने  अच्छा  और  बुरे  ने  बुरा  जाना  मुझे।
क्यों  की  जीसकी  जीतनी  जरुरत  थी  उसने  उतना  ही  पहचाना  मुझे।
ज़िन्दगी  का  फ़लसफ़ा  भी   कितना  अजीब  है,
शामें  कटती  नहीं,  और  साल  गुज़रते  चले  जा  रहे  हैं....!!
एक  अजीब  सी  दौड़  है  ये  ज़िन्दगी,
जीत  जाओ  तो  कई  अपने  पीछे  छूट  जाते  हैं,
और  हार  जाओ  तो  अपने  ही  पीछे  छोड़  जाते  हैं।
बैठ जाता हूं मिट्टी पे अक्सर...
क्योंकि मुझे अपनी औकात अच्छी लगती है..

मैंने समंदर से सीखा है जीने का सलीक़ा,
चुपचाप से बहना और अपनी मौज में रहना ।।

ऐसा नहीं है कि मुझमें कोई ऐब नहीं है पर सच कहता हूँ मुझमे कोई फरेब नहीं है

जल जाते हैं मेरे अंदाज़ से मेरे दुश्मन क्यूंकि एक मुद्दत से मैंने
न मोहब्बत बदली और न दोस्त बदले .!!.
एक घड़ी ख़रीदकर हाथ मे क्या बाँध ली..
वक़्त पीछे ही पड़ गया मेरे..!!

सोचा था घर बना कर बैठुंगा सुकून से..
पर घर की ज़रूरतों ने मुसाफ़िर बना डाला !!!

सुकून की बात मत कर ऐ ग़ालिब....
बचपन वाला 'इतवार' अब नहीं आता |

जीवन की भाग-दौड़ में -
क्यूँ वक़्त के साथ रंगत खो जाती है ?
हँसती-खेलती ज़िन्दगी भी आम हो जाती है..

एक सवेरा था जब हँस कर उठते थे हम
और
आज कई बार
बिना मुस्कुराये ही शाम हो जाती है..

कितने दूर निकल गए,
रिश्तो को निभाते निभाते..
खुद को खो दिया हमने,
अपनों को पाते पाते..

लोग कहते है हम मुस्कुराते बहोत है,
और हम थक गए दर्द छुपाते छुपाते..

"खुश हूँ और सबको खुश रखता हूँ,
लापरवाह हूँ फिर भी सबकी परवाह
करता हूँ..

मालूम है कोई मोल नहीं मेरा,
फिर भी,
कुछ अनमोल लोगो से
रिश्ता रखता हूँ...!

अजनबी शहर में अजनबी रास्त

अजनबी शहर में अजनबी रास्ते
मेरी तन्हाई पर मुस्कुराते रहे
मैं बुहत देर तक यूँही चलता रहा
तुम बुहत देर तक याद आते रहे

ज़हर मिलता रहा ज़हर पीते रहे
रोज़ मरते रहे रोज़ जीते रहे
ज़िंदगी भी हमें आजमाती रही
और हम भी उसे आजमाते रहे

ज़ख्म जब भी कोई जहन-ओ-दिलपर लगा
ज़िंदगी की तरफ एक दरीचा खुला
हम भी गोया किसी साज़ के तार हैं
चोट खाते रहे गुनगुनाते रहे

कल कुछ ऐसा हुआ मैं बहोत थक गया
इस लिए सुन के भी अनसुनी कर गया
कितनी यादों के भटके हुये कारवां
दिल के ज़ख्मों के दर खट-खटाते रहे

सख्त हालात के तेज तूफान में
घिर गया था हमारा जुनून-ए-वफ़ा
हम चराग-ए-तमन्ना जलाते रहे
वो चराग-ए-तमन्ना बुझाते रहे ....

माँ बहुत झूठ बोलती है.....

...........माँ बहुत झूठ बोलती है............

सुबह जल्दी जगाने को, सात बजे को आठ कहती है।
नहा लो, नहा लो, के घर में नारे बुलंद करती है।
मेरी खराब तबियत का दोष बुरी नज़र पर मढ़ती है।
छोटी छोटी परेशानियों पर बड़ा बवंडर करती है।
..........माँ बहुत झूठ बोलती है।।

थाल भर खिलाकर, तेरी भूख मर गयी कहती है।
जो मैं न रहूँ घर पे तो, मेरी पसंद की कोई चीज़ रसोई में उससे नहीं पकती है।
मेरे मोटापे को भी, कमजोरी की सूजन बोलती है।
.........माँ बहुत झूठ बोलती है।।

दो ही रोटी रखी है रास्ते के लिए, बोल कर,
मेरे साथ दस लोगों का खाना रख देती है।
कुछ नहीं-कुछ नहीं बोल, नजर बचा बैग में, छिपी शीशी अचार की बाद में निकलती है।
.........माँ बहुत झूठ बोलती है।।

टोका टाकी से जो मैं झुँझला जाऊँ कभी तो,
समझदार हो, अब न कुछ बोलूँगी मैं,
ऐंसा अक्सर बोलकर वो रूठती है।
अगले ही पल फिर चिंता में हिदायती हो जाती है।
.........माँ बहुत झूठ बोलती है।।

तीन घंटे मैं थियटर में ना बैठ पाऊँगी,
सारी फ़िल्में तो टी वी पे आ जाती हैं,
बाहर का तेल मसाला तबियत खराब करता है,
बहानों से अपने पर होने वाले खर्च टालती है।
..........माँ बहुत झूठ बोलती है।।

मेरी उपलब्धियों को बढ़ा चढ़ा कर बताती है।
सारी खामियों को सब से छिपा लिया करती है।
उसके व्रत, नारियल, धागे, फेरे, सब मेरे नाम,
तारीफ़ ज़माने में कर बहुत शर्मिंदा करती है।
..........माँ बहुत झूठ बोलती है।।

भूल भी जाऊँ दुनिया भर के कामों में उलझ,
उसकी दुनिया में वो मुझे कब भूलती है।
मुझ सा सुंदर उसे दुनिया में ना कोई दिखे,
मेरी चिंता में अपने सुख भी किनारे कर देती है।
..........माँ बहुत झूठ बोलती है।।

उसके फैलाए सामानों में से जो एक उठा लूँ
खुश होती जैसे, खुद पर उपकार समझती है।
मेरी छोटी सी नाकामयाबी पे उदास होकर,
सोच सोच अपनी तबियत खराब करती है।
..........माँ बहुत झूठ बोलती है।।

" हर माँ को समर्पित "