गुरुवार, 21 अप्रैल 2016

मैं रूठा, तुम भी रूठ गए

मैं रूठा, तुम भी रूठ गए
फिर मनाएगा कौन ?

आज दरार है, कल खाई होगी
फिर भरेगा कौन ?

मैं चुप, तुम भी चुप
इस चुप्पी को फिर तोड़ेगा कौन ?

बात छोटी को लगा लोगे दिल से,
तो रिश्ता फिर निभाएगा कौन ?

दुखी मैं भी और  तुम भी बिछड़कर,
सोचो हाथ फिर बढ़ाएगा कौन ?

न मैं राजी, न तुम राजी,
फिर माफ़ करने का बड़प्पन दिखाएगा कौन ?

डूब जाएगा यादों में दिल कभी,
तो फिर धैर्य बंधायेगा कौन ?

एक अहम् मेरे, एक तेरे भीतर भी,
इस अहम् को फिर हराएगा कौन ?

ज़िंदगी किसको मिली है सदा के लिए ?
फिर इन लम्हों में अकेला रह जाएगा कौन ?

मूंद ली दोनों में से गर किसी दिन एक ने आँखें....
तो कल इस बात पर फिर पछतायेगा कौन ?

औरतें अजीब होतीं हैं...

औरतें अजीब होतीं हैं...

लोग सच कहते हैं - औरतें अजीब होतीं है
रात भर सोती नहीं पूरा
थोड़ा थोड़ा जागती रहतीं
नींद की स्याही में उंगलियां डुबो कर
दिन की बही लिखतीं।
टटोलती रहतीं
दरवाजों की कुंडिया
बच्चों की चादर
पति का मन
और जब जागती सुबह
तो पूरा नहीं जागती।
नींद में ही भागतीं
हवा की तरह घूमतीं, घर बाहर...

टिफिन में रोज़ नयी रखतीं कविताएँ
गमलों में रोज बो देती आशायें
पुराने अजीब से गाने गुनगुनातीं
और चल देतीं फिर
एक नये दिन के मुकाबिल
पहन कर फिर वही सीमायें
खुद से दूर हो कर ही
सब के करीब होतीं हैं
औरतें सच में अजीब होतीं हैं ।
कभी कोई ख्वाब पूरा नहीं देखतीं
बीच में ही छोड़ कर देखने लगतीं हैं
चुल्हे पे चढ़ा दूध...

कभी कोई काम पूरा नहीं करतीं
बीच में ही छोड़ कर ढूँढने लगतीं हैं
बच्चों के मोजे, पेन्सिल, किताब
बचपन में खोई गुडि़या,
जवानी में खोए पलाश,
मायके में छूट गयी स्टापू की गोटी,
छिपन-छिपाई के ठिकाने
वो छोटी बहन छिप के कहीं रोती...

सहेलियों से लिए दिये चुकाए हिसाब
बच्चों के मोजे,पेन्सिल किताब
खोलती बंद करती खिड़कियाँ
क्या कर रही हो ?सो गयीं क्या ?

खाती रहती झिङकियाँ
न शौक से जीती ,न ठीक से मरती
कोई काम ढ़ंग से नहीं करती
कितनी बार देखी है...
मेकअप लगाये, चेहरे के नील छिपाए
वो कांस्टेबल लडकी,
वो ब्यूटीशियन, वो भाभी, वो दीदी...

चप्पल के टूटे स्ट्रैप को
साड़ी के फाल से छिपाती
वो अनुशासन प्रिय टीचर
और कभी दिखही जाती है
काॅरीडोर में, जल्दी जल्दी चलती
नाखूनों से सूखा आटा झाडते
सुबह जल्दी में नहाई
अस्पताल आई वो लेडी डाॅक्टर
दिन अक्सर गुजरता है शहादत में
रात फिर से सलीब होती है...

सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं ।
सूखे मौसम में बारिशों को
याद कर के रोतीं हैं
उम्र भर हथेलियों में
तितलियां संजोतीं हैं
और जब एक दिन
बूंदें सचमुच बरस जातीं हैं
हवाएँ सचमुच गुनगुनाती हैं
फ़जा़एं सचमुच खिलखिलातीं हैं
तो ये सूखे कपड़ों, अचार ,पापड़
बच्चों और सब दुनिया को
भीगने से बचाने को दौड़ जातीं हैं...

खुशी के एक आश्वासन पर
पूरा पूरा जीवन काट देतीं है ।
अनगिनत खाईयों पर
अनगिनत पुल पाट देतीं...
ऐसा कोई करता है क्या?
रस्मों के पहाड़ों जंगलों में
नदी की तरह बहती...
कोंपल की तरह फूटती...
जि़न्दगी की आँख से
दिन रात इस तरह
और कोई झरता है क्या ?
ऐसा कोई करता है क्या ?

एक एक बूँद जोड़ कर
पूरी नदी बन जाती
समन्दर से मिलती तो
पर समन्दर न हो पाती
आँगन में बिखरा पडा़
किरची किरची चाँद उठाकर
जोड़ कर जूड़े में खोंस लेती...

शाम को क्षितिज के माथे से टपकते
सुर्ख सूरज को उँगली से
पोंछ लेती
कौन कर सकता था
भला ऐसा औरत के सिवा ?

फर्क है, अच्छे-बुरे में, ये बताने के लिये
अदन के बाग का फल
खाती है, खिलाती है ।
आदम का अच्छा नसीब होती है
लेकिन फिर भी कितनी अजीब होती है
औरतें बेहद अजीब होती हैं
औरतें अजीब होतीं हैं

रविवार, 10 अप्रैल 2016

अभी तो इनको उड़ने दो

अभी तो इनको उड़ने दो।

अभी तो इनको उड़ने दो,
अभी तो इनको खिलने दो!
ये भी हम जैसे हो जाने है,
अभी तो इनको जीने दो!!
ये भी हम.................!!

पेड़ पर इनको चढ़ने दो,
उपवन में इन्हें विचरने दो!
मैदान में इनको कूदने दो,
पोखर में इनको तैरने दो।
ये भी हम............... !!

आकाश में हाथी ढूढने दो,
चन्दा में दूध को देखने दो!
हर बात पर इनको हँसने दो,
बिन बात पर इनको रोने दो!!
ये भी हम................!!

बिन ताल इन्हें थिरकने दो,
बरबस इनको भागने दो!
पेड़ पर इनको पढ़ने दो,
कक्षा में इनको सोने दो!!
ये भी हम.................!!

नाना की बाते करने दो,
दादा के किस्से मढ़ने दो!
माँ से इनको लड़ने दो,
भुआ की गोदी में सोने दो।।
ये भी हम..............।।

छुप के खटाई चूसने दो,
खुल के पिटाई खाने दो!
कक्षा में इनको सोने दो,
मंदिर में इनको रोने दो!!
ये भी हम............!!

शेर सी बाते करने दो,
चूहों से इनको डरने दो।
एक दूजे संग खाने से,
एक नल से पानी पिने दो।।
ये भी हम जेसे......।।
सादर।