शुक्रवार, 1 जुलाई 2016

सफर का मजा

सफर का मजा

"सफर का मजा लेना हो तो साथ में सामान कम रखिए

और

जिंदगी का मजा लेना हैं तो दिल में अरमान कम रखिए !!

जिंदगी को इतना सिरियस लेने की जरूरत नही यारों,

यहाँ से जिन्दा बचकर कोई नही जायेगा!

जिनके पास सिर्फ सिक्के थे वो मज़े से भीगते रहे बारिश में ....

जिनके जेब में नोट थे वो छत तलाशते रह गए...
                   

कर्मो' से ही पहेचान होती है इंसानो की...

महेंगे 'कपडे' तो,'पुतले' भी पहनते है दुकानों में !!..



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समुन्दर को ठहरा देख,   
ये ना सोचो इसमे रवानी नहीं है !
जब भी उठेंगे तूफान बनकर,
अभी हमने उठने की ठानी नहीं है

गुरुवार, 23 जून 2016

वाइन शॉप

वाइन शॉप 


एक बेवडे ने रात 12 बजे वाइन शॉप मालिक को फोन लगाया...
बेवड़ा- तेरी दूकान कब खुलेगी
मालिक- सुबह 9 बजे
बेवड़ा- तेरी दुकान कब खुलेगी ?
मालीक- बताया ना सुबह 9 बजे !!
बेवड़े ने फिर फ़ोन लगाकर पूछा -दुकान कब खुलेगी
मालिक बोला-अबे बेवड़े कितनी बार बताऊ सुबह 9 बजे दुकान खुलेगी..सुबह 9 बजे आना..
बेवड़ा बोला -मैं दुकान के अंदर से बोल रहा हूँ...
घबराकर मालिक दूकान पर पहुंचा, ताला खोल के चेक करने लगा..
तभी बेवड़ा पीछे से आया और बोला-अब दूकान खोल ही दी तो एक क्वार्टर रॉयल स्टैग की दे दे.....

बुधवार, 22 जून 2016

आज मुलाकात हुई

आज मुलाकात हुई


*आज मुलाकात हुई*
*जाती हुई उम्र से*

*मैने कहा जरा ठहरो तो*
*वह हंसकर इठलाते हुए बोली*
*मैं उम्र हूँ ठहरती नहीं*
*पाना चाहते हो मुझको*
*तो मेरे हर कदम के संग चलो*

*मैंने मुस्कराते हुए कहा*
*कैसे चलूं मैं बनकर तेरा हमकदम*
*संग तेरे चलने पर छोड़ना होगा*
*मुझको मेरा बचपन*
*मेरी नादानी, मेरा लड़कपन*
*तू ही बता दे कैसे समझदारी की*
*दुनियां अपना लूँ*
*जहाँ हैं नफरतें, दूरियां,*
*शिकायतें और अकेलापन*

*उम्र ने कहा*
*मैं तो दुनियां ए चमन में*
*बस एक “मुसाफिर” हूँ*
*गुजरते वक्त के साथ*
*इक दिन यूं ही गुजर जाऊँगी*
*करके कुछ आँखों को नम*
*कुछ दिलों में यादें बन बस जाऊँगी*
जय श्रीकृष्ण

रविवार, 19 जून 2016

कर्मों की आवाज

कर्मों की आवाज


"कर्मों की आवाज़
      शब्दों से भी ऊँची होती है...!
"दूसरों को नसीहत देना
      तथा आलोचना करना.
             सबसे आसान काम है।
सबसे मुश्किल काम है
        चुप रहना और
              आलोचना सुनना...!!"
यह आवश्यक नहीं कि
       हर लड़ाई जीती ही जाए।
आवश्यक तो यह है कि
   हर हार से कुछ सीखा जाए ।।
          

शुक्रवार, 17 जून 2016

ज़रा सी ज़िन्दगी में

ज़रा सी ज़िन्दगी में, व्यवधान बहुत हैं ,
तमाशा देखने को, यहां इंसान बहुत हैं !

कोई भी नहीं बताता ठीक रास्ता यहां,
अजीब से इस शहर में, नादान बहुत हैं !

न करना भरोसा भूल कर भी किसी पे,
यहां हर गली में यारो, बेईमान बहुत हैं

! दौड़ते फिरते हैं न जाने क्या पाने को,
लगे रहते हैं जुगाड़ में, परेशान बहुत हैं !

ख़ुद ही बनाते हैं हम पेचीदा ज़िंदगी को,
वरना तो जीने के नुस्ख़े, आसान बहुत हैं !

गुरुवार, 16 जून 2016

2 वक़्त की रोटी

रोज़ याद न कर पाऊँ तो खुदग़रज़ ना समझ लेना दोस्तों

दरअसल छोटी सी इस उम्र मैं परेशानियां बहुत हैं..!!

मैं भूला नहीं हूँ किसी को...
मेरे बहुत अच्छे दोस्त है ज़माने में ..

बस थोड़ी जिंदगी उलझी पड़ी है ..
2 वक़्त की रोटी कमाने में।. . .

मंगलवार, 7 जून 2016

हुस्न के जो ये नज़ारे नहीं होत

हुस्न के जो ये नज़ारे नहीं होते
हम ये दिल कभी हारे नहीं होते।

चढ जाते जो सबके होठों पर
वो गीत फिर कंवारे नहीं होते।

तमाम नफ़रतों के बलबलों में
इश्क करने वाले सारे नहीं होते।

मात खायी है हमने तो हर्ज़ नहीं
प्यार करने वाले बेचारे नहीं होते।

जो जगमगाते हरदम उंचाई से
सब के सब सितारे नहीं होते।

दीखते दूर से मौजों के पार जो
ठहरे हुए सब किनारे नहीं होते।

इस दिल को यकीन ही था कब
कि लूटने वाले सहारे नहीं होते।

देना था दगा एक रोज आखिर
दोस्त, काश हम तुम्हारे नहीं होते।

मंगलवार, 31 मई 2016

पत्थरों के शहर

पत्थरों के शहर में कच्चे मकान कौन रखता है..
आजकल हवा के लिए रोशनदान कौन रखता है..

अपने घर की कलह से फुरसत मिले..तो सुने..
आजकल पराई दीवार पर कान कौन रखता है..

जहां, जब, जिसका, जी चाहा थूक दिया..
आजकल हाथों में पीकदान कौन रखता है..

खुद ही पंख लगाकर उड़ा देते हैं चिड़ियों को..
आजकल परिंदों मे जान कौन रखता है..

हर चीज मुहैया है मेरे शहर में किश्तों पर..
आजकल हसरतों पर लगाम कौन रखता है..

बहलाकर छोड़ आते है वृद्धाश्रम में मां बाप को..
आजकल घर में पुराना सामान कौन रखता है..sp

रविवार, 29 मई 2016

पापा देखो मेंहदी वाली

पापा देखो मेंहदी वाली

मुझे मेंहदी लगवानी है , "पंद्रह साल की चुटकी बाज़ार में  बैठी मेंहदी वाली को देखते ही मचल गयी...

"कैसे लगाती हो मेंहदी "

विनय नें सवाल किया...

"एक हाथ के पचास दो के सौ ...?

  मेंहदी वाली ने जवाब दिया.

विनय को मालूम नहीं था मेंहदी

लगवाना इतना मँहगा हो गया है.

"नहीं भई एक हाथ के बीस लो

वरना हमें नहीं लगवानी."

यह सुनकर चुटकी नें मुँह फुला लिया.

"अरे अब चलो भी ,

नहीं लगवानी इतनी मँहगी मेंहदी"

विनय के माथे पर लकीरें उभर आयीं .

"अरे लगवाने दो ना साहब..

अभी आपके घर में है तो

आपसे लाड़ भी कर सकती है...

कल को पराये घर चली गयी तो

पता नहीं ऐसे मचल पायेगी या नहीं.

तब आप भी तरसोगे बिटिया की

फरमाइश पूरी करनेको...

मेंहदी वाली के शब्द थे तो चुभने

वाले पर उन्हें सुनकर विनय को

अपनी बड़ी बेटी की याद आ गयी..?

जिसकी शादी उसने तीन साल पहले

एक खाते -पीते पढ़े लिखे परिवार में की थी.

उन्होंने पहले साल से ही उसे छोटी

छोटी बातों पर सताना शुरू कर दिया था.

दो साल तक वह मुट्ठी भरभर के

रुपये उनके मुँह में ठूँसता रहा पर

उनका पेट बढ़ता ही चला गया

और अंत में एक दिन सीढियों से

गिर कर बेटी की मौत की खबर

ही मायके पहुँची.

आज वह छटपटाता है

कि उसकी वह बेटी फिर से

उसके पास लौट आये..?

और वह चुन चुन कर उसकी

सारी अधूरी इच्छाएँ पूरी कर दे...

पर वह अच्छी तरह जानता है

कि अब यह असंभव है.

"लगा दूँ बाबूजी...?,

एक हाथ में ही सही "

मेंहदी वाली की आवाज से

विनय की तंद्रा टूटी...

"हाँ हाँ लगा दो.

एक हाथ में नहीं दोनों हाथों में.

और हाँ, इससे भी अच्छी वाली हो

तो वो लगाना."

विनय ने डबडबायी आँखें

पोंछते हुए कहा

और बिटिया को आगे कर दिया.

जब तक बेटी हमारे घर है

उनकी हर इच्छा जरूर पूरी करे,

क्या पता आगे कोई इच्छा

पूरी हो पाये या ना हो पाये ।

ये बेटियां भी कितनी अजीब होती हैं

जब ससुराल में होती हैं

तब माइके जाने को तरसती हैं।

सोचती हैं

कि घर जाकर माँ को ये बताऊँगी

पापा से ये मांगूंगी बहिन से ये कहूँगी

भाई को सबक सिखाऊंगी

और मौज मस्ती करुँगी।

लेकिन

जब सच में मयके जाती हैं तो

एकदम शांत हो जाती है

किसीसे कुछ भी नहीं बोलती

बस माँ बाप भाई बहन से गले मिलती है।

बहुत बहुत खुश होती है।

भूल जाती है

कुछ पल के लिए पति ससुराल।

क्योंकि

एक अनोखा प्यार होता है मायके में

एक अजीब कशिश होती है मायके में।

ससुराल में कितना भी प्यार मिले

माँ बाप की एक मुस्कान को

तरसती है ये बेटियां।

ससुराल में कितना भी रोएँ

पर मायके में एक भी आंसूं नहीं

बहाती ये बेटियां

क्योंकि

बेटियों का सिर्फ एक ही आंसू माँ

बाप भाई बहन को हिला देता है

रुला देता है।

कितनी अजीब है ये बेटियां

कितनी नटखट है ये बेटियां

खुदा की अनमोल देंन हैं

ये बेटियां हो सके तो

बेटियों को बहुत प्यार दें

उन्हें कभी भी न रुलाये

क्योंकि ये अनमोल बेटी दो

परिवार जोड़ती है

दो रिश्तों को साथ लाती है।

अपने प्यार और मुस्कान से।

हम चाहते हैं कि

सभी बेटियां खुश रहें

हमेशा भले ही हो वो

मायके में या ससुराल में।

शनिवार, 28 मई 2016

कुछ हँस के बोल दिया करो,

कुछ हँस के
     बोल दिया करो,
कुछ हँस के
      टाल दिया करो,
यूँ तो बहुत
    परेशानियां है
तुमको भी
     मुझको भी,
मगर कुछ फैंसले
     वक्त पे डाल दिया करो,
न जाने कल कोई
    हंसाने वाला मिले न मिले..
इसलिये आज ही
      हसरत निकाल लिया करो !!
हमेशा समझौता
      करना सीखिए..
क्योंकि थोड़ा सा 
      झुक जाना
किसी रिश्ते को
         हमेशा के लिए
तोड़ देने से
           बहुत बेहतर है ।।।
किसी के साथ
     हँसते-हँसते
उतने ही हक से
      रूठना भी आना चाहिए !
अपनो की आँख का
     पानी धीरे से
पोंछना आना चाहिए !
      रिश्तेदारी और
दोस्ती में
    कैसा मान अपमान ?
बस अपनों के 
     दिल मे रहना
आना चाहिए...!

बुधवार, 25 मई 2016

उदास

"उदास होने के लिए उम्र पड़ी है,
"नज़र उठाओ सामने ज़िंदगी खड़ी है,
"अपनी हँसी को होंठों से न जाने देना!
"क्योंकि आपकी मुस्कुराहट के पीछे
             दुनिया पड़ी है
           
मुस्कुराना हर किसी के बस  का नहीं है....
मुस्करा वो ही सकता जो दिल का अमीर हो....

बुधवार, 18 मई 2016

शादी

किस किस का नाम लें, अपनी बरबादी मेँ;
बहुत लोग आये थे दुआयेँ देने शादी मेँ!

कुदरत   पर   छोड़   दो.......

स्वर्ग  का  सपना  छोड़  दो,
    नर्क   का   डर   छोड़   दो ,
    कौन   जाने   क्या   पाप ,
              क्या   पुण्य ,
                   बस............
    किसी   का   दिल   न   दुखे
    अपने   स्वार्थ   के   लिए ,
               बाकी   सब
  कुदरत   पर   छोड़   दो.......

.             

गुरुवार, 21 अप्रैल 2016

मैं रूठा, तुम भी रूठ गए

मैं रूठा, तुम भी रूठ गए
फिर मनाएगा कौन ?

आज दरार है, कल खाई होगी
फिर भरेगा कौन ?

मैं चुप, तुम भी चुप
इस चुप्पी को फिर तोड़ेगा कौन ?

बात छोटी को लगा लोगे दिल से,
तो रिश्ता फिर निभाएगा कौन ?

दुखी मैं भी और  तुम भी बिछड़कर,
सोचो हाथ फिर बढ़ाएगा कौन ?

न मैं राजी, न तुम राजी,
फिर माफ़ करने का बड़प्पन दिखाएगा कौन ?

डूब जाएगा यादों में दिल कभी,
तो फिर धैर्य बंधायेगा कौन ?

एक अहम् मेरे, एक तेरे भीतर भी,
इस अहम् को फिर हराएगा कौन ?

ज़िंदगी किसको मिली है सदा के लिए ?
फिर इन लम्हों में अकेला रह जाएगा कौन ?

मूंद ली दोनों में से गर किसी दिन एक ने आँखें....
तो कल इस बात पर फिर पछतायेगा कौन ?

औरतें अजीब होतीं हैं...

औरतें अजीब होतीं हैं...

लोग सच कहते हैं - औरतें अजीब होतीं है
रात भर सोती नहीं पूरा
थोड़ा थोड़ा जागती रहतीं
नींद की स्याही में उंगलियां डुबो कर
दिन की बही लिखतीं।
टटोलती रहतीं
दरवाजों की कुंडिया
बच्चों की चादर
पति का मन
और जब जागती सुबह
तो पूरा नहीं जागती।
नींद में ही भागतीं
हवा की तरह घूमतीं, घर बाहर...

टिफिन में रोज़ नयी रखतीं कविताएँ
गमलों में रोज बो देती आशायें
पुराने अजीब से गाने गुनगुनातीं
और चल देतीं फिर
एक नये दिन के मुकाबिल
पहन कर फिर वही सीमायें
खुद से दूर हो कर ही
सब के करीब होतीं हैं
औरतें सच में अजीब होतीं हैं ।
कभी कोई ख्वाब पूरा नहीं देखतीं
बीच में ही छोड़ कर देखने लगतीं हैं
चुल्हे पे चढ़ा दूध...

कभी कोई काम पूरा नहीं करतीं
बीच में ही छोड़ कर ढूँढने लगतीं हैं
बच्चों के मोजे, पेन्सिल, किताब
बचपन में खोई गुडि़या,
जवानी में खोए पलाश,
मायके में छूट गयी स्टापू की गोटी,
छिपन-छिपाई के ठिकाने
वो छोटी बहन छिप के कहीं रोती...

सहेलियों से लिए दिये चुकाए हिसाब
बच्चों के मोजे,पेन्सिल किताब
खोलती बंद करती खिड़कियाँ
क्या कर रही हो ?सो गयीं क्या ?

खाती रहती झिङकियाँ
न शौक से जीती ,न ठीक से मरती
कोई काम ढ़ंग से नहीं करती
कितनी बार देखी है...
मेकअप लगाये, चेहरे के नील छिपाए
वो कांस्टेबल लडकी,
वो ब्यूटीशियन, वो भाभी, वो दीदी...

चप्पल के टूटे स्ट्रैप को
साड़ी के फाल से छिपाती
वो अनुशासन प्रिय टीचर
और कभी दिखही जाती है
काॅरीडोर में, जल्दी जल्दी चलती
नाखूनों से सूखा आटा झाडते
सुबह जल्दी में नहाई
अस्पताल आई वो लेडी डाॅक्टर
दिन अक्सर गुजरता है शहादत में
रात फिर से सलीब होती है...

सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं ।
सूखे मौसम में बारिशों को
याद कर के रोतीं हैं
उम्र भर हथेलियों में
तितलियां संजोतीं हैं
और जब एक दिन
बूंदें सचमुच बरस जातीं हैं
हवाएँ सचमुच गुनगुनाती हैं
फ़जा़एं सचमुच खिलखिलातीं हैं
तो ये सूखे कपड़ों, अचार ,पापड़
बच्चों और सब दुनिया को
भीगने से बचाने को दौड़ जातीं हैं...

खुशी के एक आश्वासन पर
पूरा पूरा जीवन काट देतीं है ।
अनगिनत खाईयों पर
अनगिनत पुल पाट देतीं...
ऐसा कोई करता है क्या?
रस्मों के पहाड़ों जंगलों में
नदी की तरह बहती...
कोंपल की तरह फूटती...
जि़न्दगी की आँख से
दिन रात इस तरह
और कोई झरता है क्या ?
ऐसा कोई करता है क्या ?

एक एक बूँद जोड़ कर
पूरी नदी बन जाती
समन्दर से मिलती तो
पर समन्दर न हो पाती
आँगन में बिखरा पडा़
किरची किरची चाँद उठाकर
जोड़ कर जूड़े में खोंस लेती...

शाम को क्षितिज के माथे से टपकते
सुर्ख सूरज को उँगली से
पोंछ लेती
कौन कर सकता था
भला ऐसा औरत के सिवा ?

फर्क है, अच्छे-बुरे में, ये बताने के लिये
अदन के बाग का फल
खाती है, खिलाती है ।
आदम का अच्छा नसीब होती है
लेकिन फिर भी कितनी अजीब होती है
औरतें बेहद अजीब होती हैं
औरतें अजीब होतीं हैं

रविवार, 10 अप्रैल 2016

अभी तो इनको उड़ने दो

अभी तो इनको उड़ने दो।

अभी तो इनको उड़ने दो,
अभी तो इनको खिलने दो!
ये भी हम जैसे हो जाने है,
अभी तो इनको जीने दो!!
ये भी हम.................!!

पेड़ पर इनको चढ़ने दो,
उपवन में इन्हें विचरने दो!
मैदान में इनको कूदने दो,
पोखर में इनको तैरने दो।
ये भी हम............... !!

आकाश में हाथी ढूढने दो,
चन्दा में दूध को देखने दो!
हर बात पर इनको हँसने दो,
बिन बात पर इनको रोने दो!!
ये भी हम................!!

बिन ताल इन्हें थिरकने दो,
बरबस इनको भागने दो!
पेड़ पर इनको पढ़ने दो,
कक्षा में इनको सोने दो!!
ये भी हम.................!!

नाना की बाते करने दो,
दादा के किस्से मढ़ने दो!
माँ से इनको लड़ने दो,
भुआ की गोदी में सोने दो।।
ये भी हम..............।।

छुप के खटाई चूसने दो,
खुल के पिटाई खाने दो!
कक्षा में इनको सोने दो,
मंदिर में इनको रोने दो!!
ये भी हम............!!

शेर सी बाते करने दो,
चूहों से इनको डरने दो।
एक दूजे संग खाने से,
एक नल से पानी पिने दो।।
ये भी हम जेसे......।।
सादर।

गुरुवार, 31 मार्च 2016

शख्शियत पर अहंकार

जब भी अपनी शख्शियत पर अहंकार हो,
एक फेरा शमशान का जरुर लगा लेना।

और....

जब भी अपने परमात्मा से प्यार हो,
किसी भूखे को अपने हाथों से खिला देना।

जब भी अपनी ताक़त पर गुरुर हो,
एक फेरा वृद्धा आश्रम का लगा लेना।

और….

जब भी आपका सिर श्रद्धा से झुका हो,
अपने माँ बाप के पैर जरूर दबा देना।

जीभ जन्म से होती है और मृत्यु तक रहती है क्योकि वो कोमल होती है.

दाँत जन्म के बाद में आते है और मृत्यु से पहले चले जाते हैं...  
  क्योकि वो कठोर होते है।

छोटा बनके रहोगे तो मिलेगी हर
बड़ी रहमत...
बड़ा होने पर तो माँ भी गोद से उतार
देती है..
किस्मत और पत्नी
भले ही परेशान करती है लेकिन
जब साथ देती हैं तो
ज़िन्दगी बदल देती हैं.।।

"प्रेम चाहिये तो समर्पण खर्च करना होगा।

विश्वास चाहिये तो निष्ठा खर्च करनी होगी।

साथ चाहिये तो समय खर्च करना होगा।

किसने कहा रिश्ते मुफ्त मिलते हैं ।
मुफ्त तो हवा भी नहीं मिलती ।

एक साँस भी तब आती है,
जब एक साँस छोड़ी जाती है!!"?.: 
नंगे पाँव चलते “इन्सान” को लगता है
कि “चप्पल होते तो क अच्छा होता”
बाद मेँ……….
“साइकिल होती तो कितना अच्छा होता”
उसके बाद में………
“मोपेड होता तो थकान नही लगती”
बाद में………
“मोटर साइकिल होती तो बातो-बातो मेँ
रास्ता कट जाता”

फिर ऐसा लगा की………
“कार होती तो धूप नही लगती”

फिर लगा कि,
“हवाई जहाज होता तो इस ट्रैफिक का झंझट
नही होता”

जब हवाई जहाज में बैठकर नीचे हरे-भरे घास के मैदान
देखता है तो सोचता है,
कि “नंगे पाव घास में चलता तो दिल
को कितनी “तसल्ली” मिलती”…..

” जरुरत के मुताबिक “जिंदगी” जिओ – “ख्वाहिश”….. के
मुताबिक नहीं………

क्योंकि ‘जरुरत’
तो ‘फकीरों’ की भी ‘पूरी’ हो जाती है, और
‘ख्वाहिशें’….. ‘बादशाहों ‘ की भी “अधूरी” रह जाती है”…..

“जीत” किसके लिए, ‘हार’ किसके लिए
‘ज़िंदगी भर’ ये ‘तकरार’ किसके लिए…

जो भी ‘आया’ है वो ‘जायेगा’ एक दिन
फिर ये इतना “अहंकार” किसके लिए…

ए बुरे वक़्त !
ज़रा “अदब” से पेश आ !!
“वक़्त” ही कितना लगता है
“वक़्त” बदलने में………

मिली थी ‘जिन्दगी’ , किसी के
‘काम’ आने के लिए…..
पर ‘वक्त’ बीत रहा है , “कागज” के “टुकड़े” “कमाने” के लिए………
              

गुरुवार, 10 मार्च 2016

तमीज

बडो से बात करने का
     तरीका आपकी
     "तमीज" बताता है

      और छोटों से बात
      करने का तरीका
      आपकी "परवरिश

      अपने शब्दों में ताकत
      डालें
आवाज में नहीं

      क्यूंकि बारिश से फूल
उगते हैं,
बाढ़ से नहीं......

शनिवार, 16 जनवरी 2016

खवाहिश  नही 

खवाहिश  नही  मुझे  मशहुर  होने  की।
आप  मुझे  पहचानते  हो  बस  इतना  ही  काफी  है।
अच्छे  ने  अच्छा  और  बुरे  ने  बुरा  जाना  मुझे।
क्यों  की  जीसकी  जीतनी  जरुरत  थी  उसने  उतना  ही  पहचाना  मुझे।
ज़िन्दगी  का  फ़लसफ़ा  भी   कितना  अजीब  है,
शामें  कटती  नहीं,  और  साल  गुज़रते  चले  जा  रहे  हैं....!!
एक  अजीब  सी  दौड़  है  ये  ज़िन्दगी,
जीत  जाओ  तो  कई  अपने  पीछे  छूट  जाते  हैं,
और  हार  जाओ  तो  अपने  ही  पीछे  छोड़  जाते  हैं।
बैठ जाता हूं मिट्टी पे अक्सर...
क्योंकि मुझे अपनी औकात अच्छी लगती है..

मैंने समंदर से सीखा है जीने का सलीक़ा,
चुपचाप से बहना और अपनी मौज में रहना ।।

ऐसा नहीं है कि मुझमें कोई ऐब नहीं है पर सच कहता हूँ मुझमे कोई फरेब नहीं है

जल जाते हैं मेरे अंदाज़ से मेरे दुश्मन क्यूंकि एक मुद्दत से मैंने
न मोहब्बत बदली और न दोस्त बदले .!!.
एक घड़ी ख़रीदकर हाथ मे क्या बाँध ली..
वक़्त पीछे ही पड़ गया मेरे..!!

सोचा था घर बना कर बैठुंगा सुकून से..
पर घर की ज़रूरतों ने मुसाफ़िर बना डाला !!!

सुकून की बात मत कर ऐ ग़ालिब....
बचपन वाला 'इतवार' अब नहीं आता |

जीवन की भाग-दौड़ में -
क्यूँ वक़्त के साथ रंगत खो जाती है ?
हँसती-खेलती ज़िन्दगी भी आम हो जाती है..

एक सवेरा था जब हँस कर उठते थे हम
और
आज कई बार
बिना मुस्कुराये ही शाम हो जाती है..

कितने दूर निकल गए,
रिश्तो को निभाते निभाते..
खुद को खो दिया हमने,
अपनों को पाते पाते..

लोग कहते है हम मुस्कुराते बहोत है,
और हम थक गए दर्द छुपाते छुपाते..

"खुश हूँ और सबको खुश रखता हूँ,
लापरवाह हूँ फिर भी सबकी परवाह
करता हूँ..

मालूम है कोई मोल नहीं मेरा,
फिर भी,
कुछ अनमोल लोगो से
रिश्ता रखता हूँ...!

माँ बहुत झूठ बोलती है.....

...........माँ बहुत झूठ बोलती है............

सुबह जल्दी जगाने को, सात बजे को आठ कहती है।
नहा लो, नहा लो, के घर में नारे बुलंद करती है।
मेरी खराब तबियत का दोष बुरी नज़र पर मढ़ती है।
छोटी छोटी परेशानियों पर बड़ा बवंडर करती है।
..........माँ बहुत झूठ बोलती है।।

थाल भर खिलाकर, तेरी भूख मर गयी कहती है।
जो मैं न रहूँ घर पे तो, मेरी पसंद की कोई चीज़ रसोई में उससे नहीं पकती है।
मेरे मोटापे को भी, कमजोरी की सूजन बोलती है।
.........माँ बहुत झूठ बोलती है।।

दो ही रोटी रखी है रास्ते के लिए, बोल कर,
मेरे साथ दस लोगों का खाना रख देती है।
कुछ नहीं-कुछ नहीं बोल, नजर बचा बैग में, छिपी शीशी अचार की बाद में निकलती है।
.........माँ बहुत झूठ बोलती है।।

टोका टाकी से जो मैं झुँझला जाऊँ कभी तो,
समझदार हो, अब न कुछ बोलूँगी मैं,
ऐंसा अक्सर बोलकर वो रूठती है।
अगले ही पल फिर चिंता में हिदायती हो जाती है।
.........माँ बहुत झूठ बोलती है।।

तीन घंटे मैं थियटर में ना बैठ पाऊँगी,
सारी फ़िल्में तो टी वी पे आ जाती हैं,
बाहर का तेल मसाला तबियत खराब करता है,
बहानों से अपने पर होने वाले खर्च टालती है।
..........माँ बहुत झूठ बोलती है।।

मेरी उपलब्धियों को बढ़ा चढ़ा कर बताती है।
सारी खामियों को सब से छिपा लिया करती है।
उसके व्रत, नारियल, धागे, फेरे, सब मेरे नाम,
तारीफ़ ज़माने में कर बहुत शर्मिंदा करती है।
..........माँ बहुत झूठ बोलती है।।

भूल भी जाऊँ दुनिया भर के कामों में उलझ,
उसकी दुनिया में वो मुझे कब भूलती है।
मुझ सा सुंदर उसे दुनिया में ना कोई दिखे,
मेरी चिंता में अपने सुख भी किनारे कर देती है।
..........माँ बहुत झूठ बोलती है।।

उसके फैलाए सामानों में से जो एक उठा लूँ
खुश होती जैसे, खुद पर उपकार समझती है।
मेरी छोटी सी नाकामयाबी पे उदास होकर,
सोच सोच अपनी तबियत खराब करती है।
..........माँ बहुत झूठ बोलती है।।

" हर माँ को समर्पित "

खवाहिश  नही 

खवाहिश  नही  मुझे  मशहुर  होने  की।
आप  मुझे  पहचानते  हो  बस  इतना  ही  काफी  है।
अच्छे  ने  अच्छा  और  बुरे  ने  बुरा  जाना  मुझे।
क्यों  की  जीसकी  जीतनी  जरुरत  थी  उसने  उतना  ही  पहचाना  मुझे।
ज़िन्दगी  का  फ़लसफ़ा  भी   कितना  अजीब  है,
शामें  कटती  नहीं,  और  साल  गुज़रते  चले  जा  रहे  हैं....!!
एक  अजीब  सी  दौड़  है  ये  ज़िन्दगी,
जीत  जाओ  तो  कई  अपने  पीछे  छूट  जाते  हैं,
और  हार  जाओ  तो  अपने  ही  पीछे  छोड़  जाते  हैं।
बैठ जाता हूं मिट्टी पे अक्सर...
क्योंकि मुझे अपनी औकात अच्छी लगती है..

मैंने समंदर से सीखा है जीने का सलीक़ा,
चुपचाप से बहना और अपनी मौज में रहना ।।

ऐसा नहीं है कि मुझमें कोई ऐब नहीं है पर सच कहता हूँ मुझमे कोई फरेब नहीं है

जल जाते हैं मेरे अंदाज़ से मेरे दुश्मन क्यूंकि एक मुद्दत से मैंने
न मोहब्बत बदली और न दोस्त बदले .!!.
एक घड़ी ख़रीदकर हाथ मे क्या बाँध ली..
वक़्त पीछे ही पड़ गया मेरे..!!

सोचा था घर बना कर बैठुंगा सुकून से..
पर घर की ज़रूरतों ने मुसाफ़िर बना डाला !!!

सुकून की बात मत कर ऐ ग़ालिब....
बचपन वाला 'इतवार' अब नहीं आता |

जीवन की भाग-दौड़ में -
क्यूँ वक़्त के साथ रंगत खो जाती है ?
हँसती-खेलती ज़िन्दगी भी आम हो जाती है..

एक सवेरा था जब हँस कर उठते थे हम
और
आज कई बार
बिना मुस्कुराये ही शाम हो जाती है..

कितने दूर निकल गए,
रिश्तो को निभाते निभाते..
खुद को खो दिया हमने,
अपनों को पाते पाते..

लोग कहते है हम मुस्कुराते बहोत है,
और हम थक गए दर्द छुपाते छुपाते..

"खुश हूँ और सबको खुश रखता हूँ,
लापरवाह हूँ फिर भी सबकी परवाह
करता हूँ..

मालूम है कोई मोल नहीं मेरा,
फिर भी,
कुछ अनमोल लोगो से
रिश्ता रखता हूँ...!

अजनबी शहर में अजनबी रास्त

अजनबी शहर में अजनबी रास्ते
मेरी तन्हाई पर मुस्कुराते रहे
मैं बुहत देर तक यूँही चलता रहा
तुम बुहत देर तक याद आते रहे

ज़हर मिलता रहा ज़हर पीते रहे
रोज़ मरते रहे रोज़ जीते रहे
ज़िंदगी भी हमें आजमाती रही
और हम भी उसे आजमाते रहे

ज़ख्म जब भी कोई जहन-ओ-दिलपर लगा
ज़िंदगी की तरफ एक दरीचा खुला
हम भी गोया किसी साज़ के तार हैं
चोट खाते रहे गुनगुनाते रहे

कल कुछ ऐसा हुआ मैं बहोत थक गया
इस लिए सुन के भी अनसुनी कर गया
कितनी यादों के भटके हुये कारवां
दिल के ज़ख्मों के दर खट-खटाते रहे

सख्त हालात के तेज तूफान में
घिर गया था हमारा जुनून-ए-वफ़ा
हम चराग-ए-तमन्ना जलाते रहे
वो चराग-ए-तमन्ना बुझाते रहे ....

माँ बहुत झूठ बोलती है.....

...........माँ बहुत झूठ बोलती है............

सुबह जल्दी जगाने को, सात बजे को आठ कहती है।
नहा लो, नहा लो, के घर में नारे बुलंद करती है।
मेरी खराब तबियत का दोष बुरी नज़र पर मढ़ती है।
छोटी छोटी परेशानियों पर बड़ा बवंडर करती है।
..........माँ बहुत झूठ बोलती है।।

थाल भर खिलाकर, तेरी भूख मर गयी कहती है।
जो मैं न रहूँ घर पे तो, मेरी पसंद की कोई चीज़ रसोई में उससे नहीं पकती है।
मेरे मोटापे को भी, कमजोरी की सूजन बोलती है।
.........माँ बहुत झूठ बोलती है।।

दो ही रोटी रखी है रास्ते के लिए, बोल कर,
मेरे साथ दस लोगों का खाना रख देती है।
कुछ नहीं-कुछ नहीं बोल, नजर बचा बैग में, छिपी शीशी अचार की बाद में निकलती है।
.........माँ बहुत झूठ बोलती है।।

टोका टाकी से जो मैं झुँझला जाऊँ कभी तो,
समझदार हो, अब न कुछ बोलूँगी मैं,
ऐंसा अक्सर बोलकर वो रूठती है।
अगले ही पल फिर चिंता में हिदायती हो जाती है।
.........माँ बहुत झूठ बोलती है।।

तीन घंटे मैं थियटर में ना बैठ पाऊँगी,
सारी फ़िल्में तो टी वी पे आ जाती हैं,
बाहर का तेल मसाला तबियत खराब करता है,
बहानों से अपने पर होने वाले खर्च टालती है।
..........माँ बहुत झूठ बोलती है।।

मेरी उपलब्धियों को बढ़ा चढ़ा कर बताती है।
सारी खामियों को सब से छिपा लिया करती है।
उसके व्रत, नारियल, धागे, फेरे, सब मेरे नाम,
तारीफ़ ज़माने में कर बहुत शर्मिंदा करती है।
..........माँ बहुत झूठ बोलती है।।

भूल भी जाऊँ दुनिया भर के कामों में उलझ,
उसकी दुनिया में वो मुझे कब भूलती है।
मुझ सा सुंदर उसे दुनिया में ना कोई दिखे,
मेरी चिंता में अपने सुख भी किनारे कर देती है।
..........माँ बहुत झूठ बोलती है।।

उसके फैलाए सामानों में से जो एक उठा लूँ
खुश होती जैसे, खुद पर उपकार समझती है।
मेरी छोटी सी नाकामयाबी पे उदास होकर,
सोच सोच अपनी तबियत खराब करती है।
..........माँ बहुत झूठ बोलती है।।

" हर माँ को समर्पित "