शनिवार, 7 नवंबर 2015

खुदा जाने कौनसा गुनाह कर बैठे हैं हम।

खुदा जाने कौनसा गुनाह कर बैठे हैं हम।
तमन्नाओं वाली उम्र में तज़ुर्बे मिल रहे हैं।।

छोड दिया है किस्मत की लकीरों पर यकीन करना;

जब लोग बदल सकते हैं तो किस्मत क्या चीज है

मैं तमाम दिन का थका हुआ, तू तमाम शब का जगा हुआ
ज़रा ठहर जा इसी मोड़ पर, तेरे साथ शाम गुज़ार लूँ

बशीर बद्र

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